शनिवार, 22 नवंबर 2014

फिर भी हमारे ज़ख्म तो हँसते रहे ।

सोचा   नहीं   कुछ   बस   उन्हें   चाहते   रहे ।
झूठे    सपनों   में   वो    हमारे   आते   रहे ।।
कितना पत्थर है वो जो हमारी याद न आयी।
उनके   इन्तज़ार  में  हम  राह  ताकते  रहे ।।
खुदा भी बहरा हो गया मेरी फ़रियाद न सुनी ।
हर   फ़रियाद   में   हम   उन्हें   माँगते   रहे ।।
सदियों के बाद आये जब किसी की तलाश में ।
मंजिल  का  तो  पता  नहीं   बस  रास्ते  रहे ।।
हक़ीक़त  तो ये  है कि वो  भी हमें चाहती थी ।
मगर उसके लवों से यह सुनने को तरसते रहे ।।
फ़िराक  का  हर एक  पल  हमें दर्द  देता  रहा ।
फिर   भी    हमारे    ज़ख्म   तो   हँसते   रहे ।।
यादों   को   उनकी    हमने    महफूज़   रखा ।
अरमानों   के   महल   दिल   में   बनाते   रहे ।।

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