गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

गाँव

नेचर का नज़ारा हमने देखा है गाँव में।
आज फिर से प्यार महबूब की देखा निगाहों में।।
मिला नहीं सुकून वो आकर के शहर में।
मिलता था जो गाँव के पेड़ो की छाँव में।।
मैं जिस खुशी के लिए भटका हूँ दर - बदर।
ख़ुशी मिली वो मुझको यारों की बाँहों में।।
शौहरत हासिल करने हम शहर चले आये।
क्यों भूल गए सब मिलता माँ की दुवाओं में।।
शहर वालों को ऐतबार नहीं होता अपनों पर।
गाँव में बनते रिश्ते चलते -  चलते राहों में।।
यहाँ खाना पानी हवा के लिए करते बहुत मशक्कत।
ये सब उपलब्ध होता आसानी से गाँव में।।
ज़मीन पर दीदार ज़न्नत का होता है वहाँ।
नाँचे  मयूर  जहाँ  अपनी  अदाओं  में।।

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